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Home उत्तर प्रदेश

उत्सवों के शहर बनारस का प्राचीन लोक उत्सव “बुढवा मंगल”, जानें विस्तार से…

shrinews24in by shrinews24in
March 20, 2022
in उत्तर प्रदेश
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उत्सवों के शहर बनारस का प्राचीन लोक उत्सव “बुढवा मंगल”, जानें विस्तार से…

ध्रुव ज्योति नंदी
श्री न्यूज़ 24/अदिति न्यूज़ साप्ता
वाराणसी

वाराणसी/ होली बीतने के साथ ही उत्सवों के शहर बनारस में जलपर्व “बुढ़वा मंगल” की तैयारी शुरू हो गई है। कृषि प्रधान देश भारत में हर बदलते मौसम और खेती के लिहाज से ही पर्व मनाए जाते हैं। बुढ़वा मंगल भी इससे अछूता नहीं है। मान्यता है कि हम सभी नव संवत्सर के आगमन से पूर्व बाबा विश्वनाथ से नव वर्ष में प्रवेश और सफलता की कामना करते है। इसकी अनुमति मांगते हैं। इसी के तहत भगवान शिव को संगीतांजलि पेश की जाती है। ये पर्व होली के बाद पड़ने वाले मंगवार को गंगधार के बीच मनाया जाता है।
वाराणसी. कृषि प्रधान देश भारत में यूं तो हर पर्व खेती-किसानी से जोड़ कर ही मनाया जाता है। ऐसे में जब हम नव संवत्सर में प्रवेश करने को होते हैं तो उससे पूर्व भी उसके लिए भगवान शिव की आराधना कर उनसे इसकी अनुमति मांगी जाती है। इसके तहत ही गंगधार में बज़ड़े पर भगवान शंकर को संगीतांजलि अर्पित की जाती है। इसे ही बुढवा मंगल कहते हैं। इस उत्सव में पहले गणिकाएं व भांड़ भी शामिल होते थे। इसके पीछे सोच ये थी मां गंगा के आंचल का सामिप्य मिलने के बाद उनका शापित जीवन भी समाप्त होता है।

वैसे ये पूरी तरह से सामंती उत्सव होता रहा।वैसे ये बुढवा मंगल पूरी तरह से सामंती उत्सव रहा। शहर के रईसों की महफिल जुटा करती थी। खांटी बनारसी अंदाज में दुपलिया टोपी, चकाचक अद्धी का मांड दिया कुर्ता और उसकी बांहों पर करीने से किया चुन्नट और उसके साथ लकालक धोती और गले में गुलाबी दुपट्टा धारण किए बजड़े पर गद्दा और मसनद पर बैठ वो नृत्य-संगीत (चैती और ठुमरी) का लुत्फ उठाते रहे। लेकिन समय के साथ सामंती प्रथा समाप्त हुई और समाज पूंजीवाद की ओर बढ़ चला। बावजूद इसके काशी में ये परंपरा अभी तक जीवित है।
यूं पड़ा बुढ़वा मंगल नाम:
काशी के साहित्य-संस्कृति के जानकार अमिताभ भट्टाचार्य बुढ़वा मंगल के नामकरण के बाबत बताया कि, रंगोत्सव पर्व होली पर खेतों में फसलें कट जाती हैं। किसान से लेकर कृषि मजदूर तक खाली हो जाते हैं। सभी नव संवत्सर की आगवानी में जुटते हैं। ऐसे में नव वर्ष में पदार्पण से पूर्व और नव वर्ष में सफलता के लिए शहर के वयो वृद्ध की अनुमति लेने की परंपरा रही है। अब काशी में आदिदेव शंकर से वृद्ध कौन हो सकता है तो भूतभावन शंकर यानी वृद्ध अंगारक से अनुमति के उत्सव को ही बुढ़वा मंगल नाम प्रचलन में आया। इसका उल्लेख इतिहास में भी दर्ज है।

1927 में पड़ा था विघ्न पर उससे भी निबट लिया गया
1927 के आसपास कुछ यदुवंशियों ने इस बुढ़वा मंगल के कार्यक्रम में व्यवधान पैदा करने की कोशिश की। गंगा के बीच जिस बजड़े पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होता था उी बजड़े में अपनी नाव बांध कर हुल्लड़ मचाते रहे। लेकिन काशी के संस्कृति प्रेमियों ने उससे भी निजात पा लिया और परंपरा जारी रही।चेतसिंह घाट और राजेंद्र प्रसाद घाट से होता असि घाट पर पहुंचा आयोजन।अमिताभा भट्टाचार्य बताते हैं कि पहले यह बुढ़वा मंगल का आयोजन राजा चेतसिंह घाट पर हुआ करता था। फिर इसे राजेंद्र प्रसाद घाट पर कई वर्षों तक आयोजित किया गया। अब ये उत्सव असि घाट पर आयोजित होता है।काशी की मिट्टी में घुली मिली है संस्कृति और सांस्कृतिक आयोजन ।दरअसल काशी सांस्कृतिक राजधानी भी है। ऐसे में यहां पुरातन काल से यहां के रईस अपने मनोरंजन के लिए विविध आयोजन किया करते रहे। इसके लिए मां गंगा के पावन तट से उपयुक्त और कोई स्थल हो भी नहीं सकता। तो ये बुढ़वा मंगल भी उसी उत्सवधर्मिता का एक अंग है। एक तरफ जहां रईसों का मनोरंजन भी होता रहा। अब काशी में कोई उत्सव मनाया जाए और उससे बाबा विश्वनाथ का जुड़ाव न हो ये संभव नहीं तो कार्यक्रम की संरचना भी ऐसी होती कि बाबा को प्रसन्न करने को संगीतांजलि भी अर्पित की जाती रही।गणिकाएं, भाड़ व गौनिहारिनें देती रहीं अपनी कला की प्रस्तुति, बताया जाता है कि इस उत्सव में गणिकाओं, भांड़ों व गौनहारिनों को आमंत्रित किया जाता रहा। उत्तर वाहिनी गंगा के तट पर बसी अर्द्ध चंद्राकार काशी में जब गंगधार के बीच एक ओर बजड़ा सजता था। उस पर शहर के रईसों के बीच भिन्न-भिन्न कला के कलाकार अपनी प्रस्तुति देते रहे तो उसी बजड़े के इर्द-गिर्द क्या रामनगर से राजघाट तक बजड़ों की कतार सजती थी। दिन-रात के तीन दिवसीय जल उत्सव में सुर लय ताल का धमाल दिखता था।नवाब वजीर अली ने की थी शुरूआत पुरनिए बताते हैं कि इस उत्सव का आगाज नवाब वजीर अली ने किया था। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में काशी में अवध के नवाबों के प्रतिनिधि मीर रुस्तम अली ने इसे नए सिरे से आकार दिया। फिर 1926 में इस उत्सव को बुढ़वा मंगल का स्वरूप ही नहीं नया नाम भी मिला। तत्कालीन काशी नरेश महाराज ईश्वरी नारायण सिंह ने इसे नया स्वरूप प्रदान किया। कालांतर में कमान खुद काशी के संस्कृति प्रेमियों ने संभाल ली। इसकी महत्ता को देखते हुए डेढ दशक पहले प्रशासन भी इससे जुड़ गया।

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